मैं नहीं कहती मुझे कोई ख़ज़ाना चाहिए इल्तिजा इतनी है उल्फ़त जावेदाना चाहिए ऐश-ओ-इशरत के बिना भी काम चल सकता है जी छत तो सब को चाहिए और आब-ओ-दाना चाहिए इश्क़ मेरा जिस में महके ऐ मिरे रब्ब-ए-करीम मुझ को जन्नत से अलग वो आशियाना चाहिए इस शिकायत को मिरी तू दूर कर सकता है क्या वक़्त तेरा चाहिए और वालिहाना चाहिए रब को पाने की जो हसरत है तो इस के वास्ते दिल नज़र और बे-नियाज़ी आरिफ़ाना चाहिए हम-सफ़र माँगा था मैं ने ग़म दिए तू ने मुझे अब तलब ये है के ग़म का इक ज़माना चाहिए दिल नज़र क्या रूह तक रंग-ए-तसव्वुफ़ छा गया अब ग़ज़ल भी मुझ को मौला सूफियाना चाहिए हिज्र तेरा दे ही देगा मौत इक दिन 'सपना' को ज़िंदगी जीने का लेकिन इक बहाना चाहिए