मैं ने ख़ुद पिंजरे की खिड़की खोली है चिड़िया अपने आप कहाँ कुछ बोली है सूरज ने जंगल में डेरे डाले हैं पतझड़ ने भी खेली आँख-मिचोली है यूँ बाहें फैलाए मिलती है आ कर बारिश जैसे मिट्टी की हम-जोली है हाए तशख़्ख़ुस की मारी इस दुनिया में सब की अपनी रीती अपनी बोली है दीप जलाए रस्ता तकती रहती हूँ वो आए तो ईद दिवाली होली है उस का लहजा रात की रानी के जैसा उफ़ उस ने ये कैसी ख़ुश्बू घोली है कैसी गिरानी है इज़्ज़त की रोटी में इस से सस्ती इक बंदूक़ की गोली है पूछ रही है अपनी माँ से इक बेटी ब्याह के मा'नी ज़ेवर लहँगा चोली है कब से ले कर आस करम की या-अल्लाह तेरे दर पे अपनी फैली झोली है ख़ुद-ग़र्ज़ी के दौर में 'सीमा' रिश्तों से उम्मीदें रखती है कितनी भोली है