मैं शाह का कभी जो मुसाहिब नहीं हुआ सज्दा भी कोई मुझ पे तो वाजिब नहीं हुआ हम उस की बज़्म में तो बहुत देर तक रहे लेकिन वो शख़्स हम से मुख़ातिब नहीं हुआ दुनिया से बे-नियाज़ रहे ठीक ही किया दुनिया का रंग हम पे तो ग़ालिब नहीं हुआ लाज़िम है जा के शाह से सब लोग ये कहें जो कुछ यहाँ हुआ वो मुनासिब नहीं हुआ इन बस्तियों पे उस की नवाज़िश बहुत हुई लेकिन ये काम हस्ब-ए-मरातिब नहीं हुआ