मैं सोचता हूँ किनारा करूँ मोहब्बत से गुज़र ही जाऊँ किसी दिन मक़ाम-ए-इबरत से मैं एक तख़्ता-ए-यख़ को पकड़ के बहता हूँ भँवर की आँख मुझे तक रही है हैरत से अजब नहीं कि जुनूँ में ये मो'जिज़ा भी हो मैं इख़्तियार में आ जाऊँ अपने वहशत से ग़ुबार-ए-ख़्वाब उड़ा के गुज़र गया कोई लगी थी आँख मिरी चाँदनी में ग़फ़लत से नज़र को ढील न दो इस क़दर नज़ारे पर कि सारा काम बिगड़ जाए उस की उजलत से मुझे वजूद के फैलाओ ने किया तक़्सीम मैं अक़्लियत में अब आया हूँ अपनी कसरत से ये कौन ख़ाना-ए-दिल मैं मिरे छुपा है जो दरीचे खोल रहा है तिरी इजाज़त से