मैं तिरी दुश्मनी को भूल गया और तू दोस्ती को भूल गया जब से काँटे चुने हैं दामन में फूल की ताज़गी को भूल गया इस क़दर ज़ुल्मतों ने घेरा है इशरत-ए-रौशनी को भूल गया जब अचानक नज़र पड़ी इस पर ख़ुद को मैं दो घड़ी को भूल गया ख़ुद-पसंदी के इस ज़माने में आदमी आदमी को भूल गया होश अपना भी अब कहाँ मुझ को हर सितम हर ख़ुशी को भूल गया पी के निकला जो मय-कदे से मैं हर ग़म-ए-ज़िंदगी को भूल गया