मैं तो ज़हर-ए-ग़म भी पी कर जी लिया दहर में सुक़रात का चर्चा हुआ जान दे कर उन को पाया है मगर फिर भी ये सौदा बहुत सस्ता हुआ बोलती आँखें तबस्सुम ज़ेर-ए-लब चेहरा-ए-गुलफ़ाम शरमाया हुआ हुस्न ने चुपके से उनवाँ लिख दिया इश्क़ का मशहूर अफ़्साना हुआ आबरू-ए-हुस्न आँखें ख़ुश्क हैं अब्र-ए-ग़म भी है मगर बरसा हुआ मस्त-ओ-शादाँ मुतमइन ग़ुर्बत में है जैसे दलदल में कँवल हँसता हुआ मिल के जी 'सुल्तान' से ख़ुश हो गया आदमी माक़ूल है सुलझा हुआ