मैं तुझ पर मुन्कशिफ़ हो जाऊँ ये मुझ पर गराँ है ख़सारा सा ख़सारा ता-ब-इम्काँ सब ज़ियाँ है ये चश्म-ए-नम की ख़ूँनाबा-फ़िशानी थम रहे तो खुले अश्कों की तुग़्यानी का सर-चश्मा कहाँ है चराग़ ऐसे तह-ए-फ़र्श-ए-ज़मीं रक्खे गए थे फ़लक की माँग में इक झिलमिलाती कहकशाँ है तिरी आँखों से ले कर है शिकम तक भूक रक़्साँ तो फिर नान-ए-जवीं का दायरा ही कुल जहाँ है हुई अब रफ़तनी तेरी ख़लिश तो क्या ये समझूँ कि कुछ बाक़ी नहीं अब तेरे मेरे दरमियाँ है किया इंकार जब क़ैद-ए-क़फ़स से तब खुला ये पर-ए-पर्वाज़ की हद तो कराँ-ता-ब-कराँ है तह-ए-दाम-ए-असीरी भी रिहाई की तमन्ना मिरी सहमी हुई आँखों में अब तक पुर-फ़िशाँ है कहाँ का इश्वा-ओ-ग़म्ज़ा-ओ-नाज़िश आह 'अंजुम' कि मेरा मेहरबाँ मुझ पर अभी ना-मेहरबाँ है