मैं उस को सोचूँ शब-ओ-रोज़ बंदगी की तरह

मैं उस को सोचूँ शब-ओ-रोज़ बंदगी की तरह
हैं उस की यादें दिल-ए-ज़ार पर नमी की तरह

कटेगा कैसे भला अरसा-ए-हयात बता
तिरे बिना तो हर इक पल हुआ सदी की तरह

मुझे तो ग़म में भी लज़्ज़त सदा हुई महसूस
है रब का शुक्र मुझे ग़म दिया ख़ुशी की तरह

हमेशा दिल में ग़मों का है मद्द-ओ-जज़्र मगर
नज़र में आती हूँ ठहरी हुई नदी की तरह

कहूँ जो शे'र तो आँखें चमकने लगती हैं
मुझे तो शायरी लगती है रौशनी की तरह

वो शख़्स जिस पे लुटा दी ख़ुलूस की दौलत
वो अब मिले भी तो मिलता है अजनबी की तरह

अगर वो प्यार से सैराब कर दे दिल की ज़मीं
हर एक ज़ख़्म-ए-जिगर खिल उठे कली की तरह

ब-वक़्त-ए-नज़्अ' वो आए क़रीब 'अज़्का' के
क़ज़ा भी लगने लगी उस को ज़िंदगी की तरह


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