तवज्जोह इस क़दर उन की उसे मैं दिल-लगी समझूँ कि उन की मेहरबानी अपनी मैं ख़ुश-क़िस्मती समझूँ नज़र आता है दरिया भी बयाबाँ हिज्र में उन के जो उन का क़ुर्ब हासिल हो तो सहरा को नदी समझूँ बिछड़ कर उन से जीने की फ़क़त रस्में निभाती हूँ जो उन के साथ गुज़री है उसी को ज़िंदगी समझूँ फ़ुसूँ है प्यार का उन के जो काँटे फूल लगते हैं शब-ए-दीजूर की बस मैं ही हुस्न-ओ-दिलकशी समझूँ वो मेरी आँखों के पैग़ाम को क्यों पढ़ नहीं पाते भला कब तक मैं उन की बे-रुख़ी को सादगी समझूँ रखूँ सर उस के सीने पर और अपने ग़म भुला डालूँ वो दिल का आश्ना है क्यों उसे मैं अजनबी समझूँ न मैं हुस्न-ए-मुजस्सम हूँ न मुझ में कोई ख़ूबी है मगर उन की नज़र से ख़ुद को देखूँ तो परी समझूँ घिरी हूँ सख़्त मुश्किल में मगर हूँ मुतमइन 'अज़्का' ख़ुदा की मस्लहत होगी कोई इस में यही समझूँ