मैं ये कब कहता हूँ कम्बख़्त उन्हें याद न कर शेवन-ओ-आह मगर ऐ दिल-ए-नाशाद न कर दर्द सीने में निहाँ रह के असर रखता है हम-नशीं तक से बयाँ हुस्न की बेदाद न कर अपनी आँखों को न ख़ूँ-नाबा-फ़शाँ होने दे मुफ़्त में लाल-ए-ख़ुदा-दाद को बर्बाद न कर फूँक दे नग़्मा-ए-जाँ-सोज़ से सामान-ए-क़फ़स बुलबुल-ए-तफ़्ता-जिगर शिकवा-ए-सय्याद न कर लुत्फ़ जीने का है जब ही कि दिल-ए-मस्त-ए-ख़ुदी आसमाँ तक से ये कह दे मिरी इमदाद न कर अक़्ल-ओ-जज़्बात को रख ताब-ए-फ़रमाँ अपने इस को सर पर न चढ़ा और इन्हें आज़ाद न कर यास में फोड़ के सर मरते हैं कम-ज़र्फ़ 'अमीं' ज़र्फ़ आली है तिरा बै'अत-ए-फ़रहाद न कर