तक़दीर का शिकवा बे-मअ'नी जीना ही तुझे मंज़ूर नहीं आप अपना मुक़द्दर बन न सके इतना तो कोई मजबूर नहीं ये महफ़िल-ए-अहल-ए-दिल है यहाँ हम सब मय-कश हम सब साक़ी तफ़रीक़ करें इंसानों में इस बज़्म का ये दस्तूर नहीं जन्नत ब-निगह तसनीम ब-लब अंदाज़ उस के ऐ शैख़ न पूछ मैं जिस से मोहब्बत करता हूँ इंसाँ है ख़याली हूर नहीं वो कौन सी सुब्हें हैं जिन में बेदार नहीं अफ़्सूँ तेरा वो कौन सी काली रातें हैं जो मेरे नशे में चूर नहीं सुनते हैं कि काँटे से गुल तक हैं राह में लाखों वीराने कहता है मगर ये अज़्म-ए-जुनूँ सहरा से गुलिस्ताँ दूर नहीं 'मजरूह' उठी है मौज-ए-सबा आसार लिए तूफ़ानों के हर क़तरा-ए-शबनम बन जाए इक जू-ए-रवाँ कुछ दूर नहीं