मजरूह-ए-आरज़ू कभी मेरा जिगर न हो मिन्नत-शनास तीर-ए-नज़र दिल अगर न हो मुमकिन है ये कि ज़ब्त करूँ आँख तर न हो डर है कहीं तराविश-ए-लख़्त-ए-जिगर न हो तीखी निगह से देख लें ख़ंजर अगर न हो मुमकिन नहीं कि तीर-ए-नज़र कारगर न हो दामन को क्यों बचाए हुए जा रहे हैं वो पामाल ग़म की ख़ाक सर-ए-रहगुज़र न हो अंजान तुम बने रहो ये और बात है ऐसा तो क्या है तुम को हमारी ख़बर न हो बीमार-ए-ग़म है सोज़-ए-अलम का फुंका हुआ हर क़तरा अश्क-ए-सुर्ख़ का डर है शरर न हो हैं सरफ़रोश लज़्ज़त-ए-राहत से आश्ना सरदार कौन है वो जिसे दर्द-ए-सर न हो ऐसा निशाना चाहिए नावक-फ़गन मिरे दिल पर लगे जो तीर जिगर को ख़बर न हो सरमाया-दार-ए-ऐब-ए-वफ़ा हूँ अज़ल से मैं कुछ ग़म नहीं मुझे जो मता-ए-हुनर न हो 'बेदिल' के दिल से ज़ुल्फ़ का जाता नहीं ख़याल ये ख़ाना-ए-ख़ुदा किसी काफ़िर का घर न हो