मक़्तल के इस सुकूत पे हैरत है क्या कहें ऐसी फ़ज़ा तो हो कि जिसे कर्बला कहें ये कारवान-ए-उम्र ये सहरा ये ख़ामुशी आती है शर्म ख़ुद पे बस अब और क्या कहें लोगों ने ख़ामुशी की ज़बाँ सीख ली तो फिर क्या कर सकेंगे क़ातिल-नुत्क़-ओ-सदा कहें वो ज़र्ब थी कि नुत्क़ की ज़ंजीर खुल गई क्या और मेहरबानी-ए-दस्त-ए-जफ़ा कहें