मना कर जश्न अपनी बेबसी का उड़ाता हूँ तमस्ख़ुर ज़िंदगी का लहू की छींट हर दीवार पर थी लगा इल्ज़ाम फिर भी ख़ुद-कुशी का ख़ुदा सब को बनाते जा रहे हो तमाशा कर रहे हो बंदगी का मिरी सफ़ से जो आगे की सफ़ें हैं नुमायाँ फ़ासला है मुफ़्लिसी का चला कर पीठ पर ख़ंजर ये किस ने किया है नाम रुस्वा दुश्मनी का न जाने राह के जो पेच-ओ-ख़म को उसे ओहदा मिला है रहबरी का चलो महताब ले आएँ कहीं से बढ़ा जाता है साया तीरगी का वो दौलत इल्म की 'अर्क़म' है जिस को कभी ख़दशा नहीं है रहज़नी का