माना कि तुझ से दूर बहुत जान-ए-जाँ रहे लेकिन तिरे ख़याल से ग़ाफ़िल कहाँ रहे तंग उस पे क्यों न वुसअत-ए-कौन-ओ-मकाँ रहे गिर जाए जो नज़र से तुम्हारी कहाँ रहे मुझ सा न कोई कुश्ता-ए-याद-ए-ख़िज़ाँ रहे लम्हात-ए-सर-ख़ुशी भी तो मुझ पर गिराँ रहे सज्दों के बाद कुछ तो वफ़ा का निशाँ रहे मेरी जबीं रहे न रहे आस्ताँ रहे यूँ बे-नियाज़-ए-फ़िक्र-ए-बहार-ओ-ख़िज़ाँ रहे दो चार रोज़ जैसे कोई मेहमाँ रहे राह-ए-तलब में मिल न सकी मंज़िल-ए-उमीद गुम-कर्दा रास्ते में बहुत कारवाँ रहे पैहम तसव्वुरात-ए-मोहब्बत का शुक्रिया तुम से क़रीब-तर ही रहे हम जहाँ रहे कुछ तो समझ सकूँगा नशेब-ओ-फ़राज़-ए-दहर अच्छा है वक़्त मुझ पे गिराँ है गिराँ रहे तौहीन-ए-सज्दा है वो अगर बे-ख़ुदी नहीं जब होश ही रहा तो वो सज्दे कहाँ रहे फीकी बहार भी है मुझे आप के बग़ैर इक आप ही हों साथ तो रंगीं ख़िज़ाँ रहे उफ़ मैं वहाँ भी तिश्ना-ए-ज़ौक़-ए-तलब रहा लबरेज़ लाखों शीशा-ओ-साग़र जहाँ रहे ऐ 'मौज' हम ने ग़र्क़ सफ़ीना ही कर दिया मिन्नत-कश-ए-तलातुम-ओ-तूफ़ाँ कहाँ रहे