मनाता हूँ मगर वैसे ही बस रूठे हुए से हैं वो शायद तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम खाए हुए से हैं तुम्हारे हिज्र के सदमों ने हालत ये बना दी है न हम सोए हुए से हैं न हम जागे हुए से हैं बस इतने से समझ लो कू-ए-जानाँ के फ़ज़ाएल तुम गुलों के मिस्ल ही काँटे वहाँ महके हुए से हैं ऐ मेरे सब्र ज़िंदाबाद ऐ मेरी प्यास ज़िंदाबाद जो पैमाने कि ख़ाली थे वो सब छलके हुए से हैं मिरी परवाज़ पहले जैसी रिफ़अत क्यों नहीं पाती ज़रा देखो तो कुछ पर क्या मिरे कतरे हुए से हैं ब-ज़ाहिर और ब-बातिन में यही इक फ़र्क़ है साहिब वो मेरे साथ में तो हैं मगर बिछड़े हुए से हैं तिरे दिल में भी क्या चाहत के नर्म एहसास जाग उट्ठे तिरे अंदाज़ आख़िर आज क्यों बदले हुए से हैं ज़रूर उन से जुनूँ-बर-दोश दीवाने गए होंगे पहाड़ों और चट्टानों पे जो रस्ते हुए से हैं