मंज़िल-ए-ग़म है चराग़-ए-शाम है हर तरफ़ आराम ही आराम है कौन कहता है कि वो नाकाम है जो शिकार-ए-गर्दिश-ए-अय्याम है हर मसर्रत के लिए लाज़िम है ग़म हर सहर के वास्ते इक शाम है जिस को हासिल हो शुऊ'र-ए-आगही ज़िंदगी उस के लिए इनआ'म है हुस्न की रानाइयों में जो नहीं इश्क़ के होंटों पे वो पैग़ाम है तू निगाह-ए-ग़ौर से देखे अगर हर जगह उन की तजल्ली आम है रहबरों के भेस में हैं राहज़न दिन के आईने में अक्स-ए-शाम है बहर-ए-ग़म में ग़र्क़ हो कश्ती जहाँ बस उसी साहिल का तूफ़ाँ नाम है लोग कहते हैं 'वकील'-ए-बे-हुनर तुझ पे पैहम बारिश-ए-इल्हाम हे