मंज़िल की जुस्तुजू में बिखरना पड़ा मुझे दुश्वार रास्तों से गुज़रना पड़ा मुझे मरने के वास्ते मुझे भेजा गया यहाँ जीने के वास्ते यहाँ मरना पड़ा मुझे ये सोच कर कि तुझ से न परवाज़ ऊँची हो अपने परों को ख़ुद ही कतरना पड़ा मुझे जब चाँद को मैं दोस्त बनाने लगा तो फिर सूरज की बरहमी से भी डरना पड़ा मुझे 'ज़रयाब' सहल कब हैं मज़ामीन बाँधना अल्फ़ाज़ की तहों में उतरना पड़ा मुझे