मरहले जिस में बहुत हश्र-निशाँ गुज़रे हैं उस रह-ए-शौक़ से हम रक़्स-कुनाँ गुज़रे हैं जिन मक़ामातजुनूँ से था गुज़रना मुश्किल हम उन्ही से सिफ़त-ए-सैल-ए-रवाँ गुज़रे हैं ये दमकते हुए ज़र्रात पता देते हैं इस तरफ़ से वो कभी नूर-फ़िशाँ गुज़रे हैं जो भी गुज़रे हैं तिरी याद से ग़ाफ़िल रह कर ज़िंदगी में वही लम्हात गराँ गुज़रे हैं तिश्नगी ज़ौक़-ए-नज़ारा की वही है कि जो थी यूँ नज़र से कई रंगीन समाँ गुज़रे हैं 'मंशा' अपना ही जिगर है कि रह-ए-ज़ीस्त से यूँ बे-हिजाबाना ब-सद अज़्म-ए-जवाँ गुज़रे हैं