सोज़िश-ए-ग़म की इनायत कभी ऐसी तो न थी आज है दिल की जो हालत कभी ऐसी तो न थी अपनी हस्ती का भी एहसास नहीं है जैसे ख़ुद-फ़रामोशी-ए-वहशत कभी ऐसी तो न थी साज़िश-ए-दीदा-ओ-दिल रंग ही लाई आख़िर खोई खोई सी तबीअत कभी ऐसी तो न थी ऐ ग़म-ए-इश्क़ ये तेरा ही करम है शायद अब है जो ज़ीस्त की सूरत कभी ऐसी तो न थी उन निगाहों ने ही कुछ सेहर किया है वर्ना ज़िंदगानी में हरारत कभी ऐसी तो न थी अपने ही ख़ून-ए-जिगर का तो ये फ़ैज़ान नहीं मौसम-ए-गुल में तरावत कभी ऐसी तो न थी मौजा-ए-नूर ने फिर सर न उठाया हो कहीं सहमी सहमी हुई ज़ुल्मत कभी ऐसी तो न थी आज क्यों ज़द पे हैं उस की ये मह-ओ-मेहर-ओ-नुजूम अज़्म-ए-इंसाँ की जसारत कभी ऐसी तो न थी उन में एहसास-ए-ख़ुदी जाग रहा है 'मंशा' वर्ना ज़र्रों में तमाज़त कभी ऐसी ऐसी न थी