मरना अज़ाब था कभी जीना अज़ाब था मेरा मुशीर इश्क़ सा ख़ाना-ख़राब था दिल मर मिटा तिलावत-ए-रुख़सार-ए-यार में मरहूम तिफ़लगी से ही अहल-ए-किताब था सोचा तो इस हबीब को पाया क़रीब-ए-जाँ देखा तो आस्तीं में छुपा आफ़्ताब था वो बारगाह मेरी वफ़ा का जवाज़ थी इस आस्ताँ की ख़ाक मिरा ही शबाब था मेरी हर एक सुब्ह थी आग़ोश-ए-दिलबरी मेरी हर एक शाम का उन्वाँ शराब था दिल भी सनम-परस्त नज़र भी सनम-परस्त इस आशिक़ी में ख़ाना हमा आफ़्ताब था कब इस सियाह-बख़्त ने छोड़ा किसी का साथ दश्त-ए-जुनूँ में साया मिरा हम-रिकाब था तू कब मआल-ए-जौर-ओ-जफ़ा को समझ सका तेरा जमाल तेरे लिए भी हिजाब था जिस दौर को फ़क़ीह ने इस्याँ समझ लिया उस दौर में तो पी के बहकना सवाब था वो हुस्न किस क़दर अदब-आमोज़ था 'ज़हीर' क़द ख़ामा-ए-रवाँ था तो चेहरा किताब था