मौसम बदला रुत गदराई अहल-ए-जुनूँ बेबाक हुए फ़स्ल-ए-बहार के आते आते कितने गिरेबाँ चाक हुए गुल-बूटों के रंग और नक़्शे अब तो यूँही मिट जाएँगे हम कि फ़रोग़-ए-सुब्ह-ए-चमन थे पाबंद-ए-फ़ितराक हुए मोहर-ए-तग़य्युर इस धज से आफ़ाक़ के माथे पर चमका सदियों के उफ़्तादा ज़र्रे हम-दोश-ए-अफ़्लाक हुए दिल के ग़म ने दर्द-ए-जहाँ से मिल के बड़ा बेचैन किया पहले पलकें पुर-नम थीं अब आरिज़ भी नमनाक हुए कितने अल्हड़ सपने थे जो दूर सहर में टूट गए कितने हँसमुख चेहरे फ़स्ल-ए-बहाराँ में ग़मनाक हुए बर्क़-ए-ज़माना दूर थी लेकिन मिशअल-ए-ख़ाना दूर न थी हम तो 'ज़हीर' अपने ही घर की आग में जल कर ख़ाक हुए