मसर्रत के लम्हात कम देखते हैं ज़माने की आँखों में ग़म देखते हैं ये किस की है आमद शगुफ़्ता फ़ज़ा है बहारों का हर-सू करम देखते हैं मिटाया है जिस ने मोहब्बत में ख़ुद को हम उस का ही नक़्श-ए-क़दम देखते हैं उख़ुव्वत मोहब्बत न ही भाई-चारा यहाँ भाई भाई को कम देखते हैं सिखाए हैं जिस ने तबस्सुम तकल्लुम अब उन पर मुसल्लत सितम देखते हैं ये महफ़िल सजाई थी जिस के लिए क्यों उसे ही यहाँ पर अदम देखते हैं ये ए'ज़ाज़ है क्या मोहब्बत का 'सारिम' मोहब्बत की आँखों को नम देखते हैं