मसीहा की नज़र मायूस बीमारों से उलझी है क़यामत-कुन शिकस्ता-हाल दीवारों से उलझी है तिरी दुनिया का या-रब क्या बिगाड़ा है ग़रीबों ने तिरी दुनिया भी हम तक़दीर के मारों से उलझी है हमारी ज़िंदगी क्या है जहान-ए-रंज-ओ-राहत है कभी फूलों से लिपटी है कभी ख़ारों से उलझी है ये शायद आख़िरी इक मरहला है आज़माइश का मोहब्बत आज अपने नाज़-बरदारों से उलझी है न ज़ौक़-ए-दीद है बाक़ी न उन्वान-ए-तलब 'अंजुम' नज़र किस बेकसी में शोख़ नज़्ज़ारों से उलझी है