मसरूफ़ हुए इतने इस आलम-ए-फ़ानी में हम ही न नज़र आए ख़ुद अपनी कहानी में गुलशन के निगहबानो हम को न भुला देना कुछ ख़ार भी लाज़िम हैं फूलों की कहानी में ऐ दीदा-ए-तर तुझ को मालूम नहीं शायद ये जाते हैं ख़्वाब अक्सर अश्कों की रवानी में अब वो भी किसी घर की दीवार का हिस्सा हैं बुनियाद के पत्थर जो बाक़ी थे निशानी में कुछ ज़ह्न में होता है आता है ज़बाँ पर कुछ कह जाते हैं जाने क्या हम यूँ ही रवानी में कब रात गुज़रती है कब दिन निकल आता है कुछ होश नहीं रहता 'ज़ीशान' जवानी में