सहन-ए-चमन में बाद-ए-सबा महव-ए-रक़्स है या ज़ह्न में ख़याल तिरा महव-ए-रक़्स है सूरज सितारे चाँद ज़मीन और आसमाँ ये सारी काएनात ख़ुदा महव-ए-रक़्स है हर ज़र्रा-ए-ज़मीन है कुछ बोलता हुआ लगता है जैसे कोई सदा महव-ए-रक़्स है तेरा ख़याल तेरा तसव्वुर तिरी तलब हर दम लबों पे ज़िक्र तिरा महव-ए-रक़्स है वो बेवफ़ाइयाँ भी करे गर तो किस तरह वो जिस के इर्द-गिर्द वफ़ा महव-ए-रक़्स है 'ज़ीशान' तेरी फ़िक्र में परवाज़ क्यों न हो अज्दाद के सुख़न की फ़ज़ा महव-ए-रक़्स है