मसरूफ़ियत में आज भी गुज़रा तमाम दिन रहना पड़ा हुजूम में तन्हा तमाम दिन कहने को एक भीड़ सी मौजूद थी वहाँ लेकिन था साथ बस मिरा साया तमाम दिन तर्क-ए-वफ़ा के बाद पशेमाँ सी वो नज़र भूला तमाम रात न भूला तमाम दिन मिलने का तुम ने आज कहा था मुझे मगर सूरज तो आज भी नहीं निकला तमाम दिन वो जा रहा था ढलते हुए साए की तरह चाहा तो मैं ने था कि वो रहता तमाम दिन थोड़ा सा रौशनी को अंधेरा भी चाहिए देखो सितारा कोई न चमका तमाम दिन 'आदिल' मैं रात भर तो परेशाँ रहा मगर रौशन हुए दरीचों में घूमा तमाम दिन