में अक्सर एहतिमाम-ए-ख़ातिर-ए-सय्याद करता हूँ गँवा कर अपने बाल-ओ-पर क़फ़स आबाद करता हूँ मुहंदिस हूँ मैं हर्फ़-ओ-सौत के ताज़ा जहानों का सो अपने शेर में लहजे नए ईजाद करता हूँ तो क्या फ़तवा कोई दरकार है मेरे जुनूँ को भी कि जा कर मैं फ़क़ीह-ए-शहर से फ़रियाद करता हूँ सजाता हूँ किसी की याद से मैं ग़म-कदा अपना इसी सूरत दिल-ए-नाशाद को मैं शाद करता हूँ तक़ाज़ा है ख़िरद का मैं भुला दूँ अब उसे लेकिन न जाने क्यों मैं रह रह कर उसी को याद करता हूँ नए रस्ते बनाने के नए आदाब हैं फिर भी मैं अपने दौर में रह कर ग़म-ए-फ़रहाद करता हूँ मिरी जानिब जो फेंके हैं मिरे अहबाब ने पत्थर मैं उन को कामयाबी की क़वी बुनियाद करता हूँ समझ में कुछ नहीं आता ये कैसा अद्ल है 'आदिल' कि ख़ुद पर ज़ुल्म करता और ख़ुद फ़रियाद करता हूँ