सब आग ज़ाहिरी थी दिलों में लगी न थी मुझ को भी कब जुनूँ था अगर वो परी न थी हसरत मलाल दर्द तड़प ख़्वाब आरज़ू इक कारवाँ था साथ मिरे बस वही न थी वो दश्त-ए-इंतिशार में ऐसा ग़ज़ाल था नाफ़ा से जिस के मुश्क अभी तक उड़ी न थी फिर ये हुआ कि दोनों जुदा हो गए मगर उस को भी था मलाल मुझे भी ख़ुशी न थी सोचा तो एक अब्र का टुकड़ा बरस गया देखा तो दूर-दूर हवा में नमी न थी दुनिया तो दोस्ती पे रज़ा-मंद थी 'ज़िया' पर क्या करें कि ख़ुद से मिरी दुश्मनी न थी