मताअ'-ए-ऐश जो पाई तो मुफ़्लिसी न रही तुम आ गए तो किसी चीज़ की कमी न रही वो लौ लगी कि न आँखें रहीं न दिल बाक़ी बुझी बुझी न रही और लगी लगी न रही ये ग़म रहा दम-ए-रुख़्सत तुम्हें नहीं देखा अब आए तुम कि जब आँखों में रौशनी न रही तमाम उम्र ये देखा करिश्मा-ए-क़िस्मत बिगड़ बिगड़ के बनी और बनी बनी न रही न आए फिर वो जुदा जब से हो गए 'नश्तर' रहा भी क्या जो मिरे घर की रौशनी न रही