मता-ए-ख़ून-ए-जिगर अश्क को पिला बैठे असासा हाथ में जितना था सब उठा बैठे किसी हसीन से दिल को जो हम लगा बैठे तो अपनी मौत को ख़ुद आप ही बुला बैठे बड़ा गुनाह किया जो क़ुबूल की दावत वो दिल को ले उड़े और दूर जा बैठे उसे बुलाने बैठाने का ज़िक्र ही क्या है जो अज़-ख़ुद आए निगाहों में और समा बैठे हमारे हाल पे इतना तो वो करम कर दे कि दिल न दे न सही कुछ क़रीब आ बैठे नफ़ा समझ के बसे थे तुम्हारे कूचे में मगर जो गाँठ में था वो भी सब लुटा बैठे हम उन बुज़ुर्ग के पैरव हैं एक अदना से नज़र की रौशनी जो तूर पर गँवा बैठे हर एक बज़्म में चर्चा है हर ज़बाँ पर ज़िक्र ये किस से माजरा-ए-इश्क़ हम सुना बैठे वो दस्त-ए-फ़ैज़ तो 'रहबर' निहाल कर देता उमीद आप किसी और से लगा बैठे