मिरा ही बन के वो बुत मुझ से आश्ना न हुआ वो बे-नियाज़ था इतना तो क्यूँ ख़ुदा न हुआ शिकन हमेशा जबीं पर रहे तो आदत है मुझे यक़ीं है वो मुझ से कभी ख़फ़ा न हुआ तमाम उम्र तिरी हम-रही का शौक़ रहा मगर ये रंज कि मैं मौजा-ए-सबा न हुआ हिजाब-ए-हुस्न से बढ़ती है वार-ए-उर्यानी यही सबब है मैं आज़ुर्दा-ए-हया न हुआ नशात-ए-हिज्र का ख़ूगर बना दिया होता जफ़ा-ए-यार से इतना भी हक़ अदा न हुआ हयात-ओ-हिज्र का ख़ुद मैं ने इंतिख़ाब किया मैं क़ैद कब था जो मैं क़ैद से रहा न हुआ दयार-ए-दर्द में दिल ने बहुत तलाश किया नसीब-ए-इश्क़ मगर तेरा नक़्श-ए-पा न हुआ 'ज़हीर' सोज़-ए-दरूँ भी अजब करिश्मा है मैं दूर रह के भी उस से कभी जुदा न हुआ