मायूस अँधेरों से न ऐ दीदा-ए-तर हो आख़िर तो कभी इस शब-ए-ग़म की भी सहर हो अब शौक़ का इज़हार ब-अंदाज़-ए-दिगर हो दिल टूट भी जाए तो किसी को न ख़बर हो शायद कि कभी उस को भी हो जाए मोहब्बत शायद कि कभी उस की भी आँखों में बसर हो हो दिल में बपा हश्र तो हो लब पे ख़मोशी यूँ कीजिए उल्फ़त कि उन्हें भी न ख़बर हो वा'दा तो हुआ है कि वो आएँगे सर-ए-शाम अब देखिए किस रंग में इस शब की सहर हो कब तक मैं रहूँ महव-ए-सुकूत-ए-शब-ए-हिज्राँ ऐ क़ल्ब-ए-हज़ीं नाला बपा कर कि सहर हो इक उम्र कटी ख़ाना-बदोशी में हमारी हसरत है कि दुनिया में कोई अपना भी घर हो तुम वारिस-ए-जमशेद-ओ-सिकंदर सही लेकिन ऐ काश तुम्हें अपने वतन की भी ख़बर हो सेजों पे कटे उम्र कि काँटों पे 'तबस्सुम' बस एक तमन्ना है मोहब्बत में बसर हो