न उल्फ़त न याद-ए-ख़ुदा ले गए न जाने वो दुनिया से क्या ले गए गिरी बर्क़ क्या जाने किस शाख़ पर मिरा आशियाँ वो उठा ले गए मैं उन के तलत्तुफ़ का जोया रहा दुआ लेने वाले दुआ ले गए न आह-ओ-फ़ुग़ाँ पर था क़ाबू मिरा न आँसू ही मुझ से सँभाले गए जो करते रहे प्यार काँटों से भी वो राह-ए-वफ़ा को सजा ले गए ज़ियारत को जितने भी आए थे लोग दिलों में वो तुझ को बिठा ले गए न कुछ साथ लाए थे दुनिया में हम न पूछो कि हम साथ क्या ले गए सफ़र ज़िंदगी का न काटे कटे न मंज़िल का भी हम पता ले गए पता उन का मिलता नहीं दह्र में चुरा कर जो दिल आप का ले गए सुपुर्द-ए-ख़ुदा ख़ुद को कर के 'रफ़ीक़' क़ज़ा से वो ख़ुद को बचा ले गए