मेहरबाँ मुझ पे कोई नाज़ का पाला होता मेरा पहलू भी किसी चाँद का हाला होता फिर दिखाता तिरे जल्वों का फ़ुसूँ गर तुझ को मेरी आँखों से कोई देखने वाला होता गर मुयस्सर न थी दुनिया में मसर्रत तुझ को ज़ीस्त को दर्द के साँचे ही में ढाला होता रंज-ओ-ग़म एक हैं इस कार-गह-ए-हस्ती के दिल की आँखों से मगर देखने वाला होता चुन लिया मुझ को कि मंशा-ए-मशिय्यत था यही हुस्न का तेरे कोई चाहने वाला होता हर्फ़ आ कर ही रहा तेरे करम पर साक़ी गिरने वाले को किसी ने तो सँभाला होता राज़-ए-दिल कह के उन्हें कर दिया ख़ुद-बीं 'साहिर' यूँ मोहब्बत को मुसीबत में न डाला होता