मिरा शिकवा हर इक सोहबत में सुब्ह-ओ-शाम करते हैं ख़ुदा जाने मुझे इतना वो क्यों बदनाम करते हैं गिला उन की जफ़ाओं का जो सुब्ह-ओ-शाम करते हैं तिरा शिकवा भी वो ऐ गर्दिश-ए-अय्याम करते हैं सहर होते ही हम यकजा सुबू-ओ-जाम करते हैं सवेरे ही से दूर-अंदेश फ़िक्र-ए-शाम करते हैं मोहब्बत महज़ रुस्वाई है ऐ दिल सोच ले इस को बड़ी मुश्किल से पैदा लोग अपना नाम करते हैं किसी से हम-सुख़न होता नहीं महफ़िल में परवाना उन्हें बातें नहीं आतीं जो अपना काम करते हैं हमीं को क्यों बनाया तख़्ता-ए-मश्क़-ए-सितम तुम ने तुम्हारे इश्क़ का दा'वा तो ख़ास-ओ-आम करते हैं बड़े नादान हैं जिन को है उम्मीद-ए-करम तुझ से जो आक़िल हैं वो कब ऐसा ख़याल-ए-ख़ाम करते हैं रही उम्र-ए-रवाँ गर्म-ए-सफ़र शब को भी ऐ 'साहिर' जिन्हें है फ़िक्र मंज़िल की वो कब आराम करते हैं