रफ़्ता-रफ़्ता इश्क़ को ख़ुद-आगही होने लगी दूर कुछ बरहम-मिज़ाजी हुस्न की होने लगी अल्लह अल्लह गिर्या-ए-शबनम पे भी हैं ख़ंदा-ज़न बार-ए-ख़ातिर मुझ को फूलों की हँसी होने लगी दर-हक़ीक़त ये मिरे ज़ौक़-ए-नज़र का फ़ैज़ है हुस्न की दुनिया में पैदा दिल-कशी होने लगी शैख़ जब इश्क़-ए-बुताँ में हो गए ना-कामयाब इम्तिहानन फिर ख़ुदा की बंदगी होने लगी उन के कूचे में भी जाना मुझ को आसाँ हो गया पर्दा-पोश-ए-आरज़ू दीवानगी होने लगी जोर से कुछ कम नहीं उन की करम-फ़रमाइयाँ बरसर-ए-बाज़ार हम से दिल-लगी होने लगी आशियाँ की ख़ैर हो या-रब ये क्या अंधेर है शब को गुलशन की तरफ़ क्यों रौशनी होने लगी फ़ैज़ 'साहिर' जानिए इस को जनाब-ए-'जोश' का अब हमारी शायरी भी साहिरी होने लगी