मिरा तर्ज़-ए-बयान-ए-शौक़ बेबाकाना होता है अमल जो रिंद से होता है वो रिंदाना होता है मिरी रूदाद में मुज़्मर है हाल-ए-ज़िंदगी तेरा बयान-ए-इश्क़ गोया हुस्न का अफ़्साना होता है नहीं मिलती है दम लेने की मोहलत शम-ए-महफ़िल को इधर परवाना होता है उधर परवाना होता है हरीफ़-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना क्या कोई तुम्हारा हो जिसे दीवाना तुम करते हो वो दीवाना होता है कभी रिंदान-ए-महफ़िल बे-पिए मख़मूर होते हैं कभी ये ख़ास फ़ैज़-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना होता है जब उन से ज़ो'म-ए-ख़ुद्दारी में खिंच जाता हूँ कहती हैं ये तर्ज़-ए-मीरज़ायाना तो मअशूक़ाना होता है जब अब्र-ए-मै-कदा-बर-दोश सेहन-ए-बाग़ में आए उसी को कहते हैं फ़रज़ाना जो दीवाना होता है जनाब-ए-वाइज़-ए-रंगीं-बयाँ से कोई ये पूछे कि क्यों हर वा'ज़ में ज़िक्र-ए-मय-ओ-पैमाना होता है मैं कहने को तो अपनी दास्तान-ए-इश्क़ कहता हूँ मगर मुँह से निकल कर हुस्न का अफ़्साना होता है मय-ए-उम्मीद से भर लेता हूँ आजिज़ नहीं होता तही-दस्ती में जब ख़ाली मिरा पैमाना होता है बढ़ा देता हूँ मैं ख़ुद हाथ रुकता है अगर साक़ी मिरा हर फ़े'ल बज़्म-ए-मय में बे-बाकाना होता है अभी जो राज़ है पिन्हाँ अयाँ हो जाएगा इक दिन कि अफ़्सून-ए-मोहब्बत ही तो फिर अफ़्साना होता है रही क़ैद-ए-मकाँ से मय-कशी आज़ाद 'बेदिल' की जहाँ वो बैठ जाता है वही मय-ख़ाना होता है