फिर रही थी गली गली आवाज़ क्या हुई किस तरफ़ गई आवाज़ मेरा शहर-ए-सुकूँ लरज़ उट्ठा जाने कैसी थी वो नई आवाज़ ख़ुश्बूओं सी अदा अदा उस की रौशनी सी बिखेरती आवाज़ दिल मुख़ातब हुआ है उस की तरफ़ मुझ को शायद किसी ने दी आवाज़ उस के रुख़्सार जैसे शो'ला-ए-गुल शहद कानों में घोलती आवाज़ एक मुद्दत के बाद ज़िंदाँ में जाने किस की ये गूँज उठी आवाज़ तेरे क़दमों की चाप सुन के लगा इस से अच्छी नहीं कोई आवाज़ तेरे अल्फ़ाज़ हैं शनाख़्त तिरी तेरी पहचान है तिरी आवाज़ मेरे अंदर से बोलता है तू मेरे होंटों पे है तिरी आवाज़ दश्त-ए-एहसास में अभी अभी 'नूर' आई है मुझ को ढूँडती आवाज़