मेरे अल्फ़ाज़ को गुफ़्तार को खा जाएगी मेरी वहशत मिरे अफ़्कार को खा जाएगी अश्क रोको नही बह जाने दो वर्ना इक दिन ये नमी जिस्म की दीवार को खा जाएगी बात सुन यार मिरे दश्त ही बेहतर है तुझे तेरी वीरानी तो बाज़ार को खा जाएगी जानता था मिरे किरदार के ख़ालिक़ की नज़र बीच अफ़्साने में किरदार को खा जाएगी वक़्त है अब भी ख़ुदा आ के बचा ले इस को ये उदासी तिरे शहकार को खा जाएगी ज़िंदगी पीर से हफ़्ते को अगर खींच भी गई मौत आराम से इतवार को खा जाएगी आह 'अहमद' ये तिरी इश्क़ में पाने की हवस ये तिरे इश्क़ के मेआ'र को खा जाएगी