मेरे ही जैसा कोई उस पार था आँख थी या रौज़न-ए-दीवार था उल्टी जानिब बह रही थीं कश्तियाँ और हवा के हाथ में पतवार था आँख उठा कर देखता क्यों अक्स को आइने का भी कोई मेआ'र था पाँव धरने को मिली ऐसी ज़मीं पाँव धरना भी जहाँ दुश्वार था बात करते जा रहे थे आइने महव-ए-हैरत आइना-बरदार था देखता रहता था आँखें मूँद कर नींद में था या कोई बेदार था पूछते हो क्या बुलंदी का सबब ज़ेर-ए-पा 'आसिफ़' फ़राज़-ए-दार था