पहाड़ों से अभी निकला नहीं था मैं दरिया था मगर गहरा नहीं था अयाँ होता किसी पर राज़ क्यूँ-कर अभी वो वक़्त ही आया नहीं था सर-ए-मक़्तल मिरे ही तज़्किरे थे मगर मैं ग़ार से लौटा नहीं था हरम था मुंतज़िर सदियों से जिस का वो कोई बुत-शिकन आया नहीं था अजब अंदाज़ का था इल्म मेरा किसी के फ़हम में आता नहीं था मैं ऐसे भेस में बस्ती से गुज़रा किसी ने मुझ को पहचाना नहीं था शब-ए-हिजरत बहुत ख़दशे थे लेकिन ज़माना नींद से जागा नहीं था कुछ ऐसी रौशनी छाई हुई थी किसी को कुछ नज़र आता नहीं था यही पहचान थी 'आसिफ़' हमारी हमारे पास आईना नहीं था