मिरे नालों का होता है ख़ुदा जाने असर कब तक मिरी दुनिया रहेगी इस तरह ज़ेर-ओ-ज़बर कब तक सफ़र मस्लक मिरा मुझ को कोई इतना तो समझाए कि इस कूचे में होगी ज़िंदगी मेरी बसर कब तक जिहाद-ए-ज़िंदगी में सख़्त-कोशी शर्त-ए-अव्वल है ये सोज़-ए-इश्क़ ताके लज़्ज़त-ए-दाग़-ए-जिगर कब तक वही मजनूँ वही लैला वही वामिक़ वही अज़रा मैं दोहराता रहूँ क़िस्से ब-अंदाज़-ए-दिगर कब तक जो रिफ़अत की तमन्ना हो तो जज़्ब-ओ-शौक़ पैदा कर रहेगा इस चमन में तू रहीन-ए-बाल-ओ-पर कब तक गया दौर-ए-जवानी अब तो 'मंज़र' होश में आओ ख़ुमार-ए-शब कहाँ तक लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर कब तक