मेरे परवाने को अब मुज़्दा-ए-मायूसी है क्यूँकि वो पर्दा-नशीं शाला-ए-फ़ानूसी है साक़िया दस्त-ए-निगारीं से तिरे मीना में हम जो करते हैं नज़र जल्वा-ए-ताऊसी है जाम-ए-लबरेज़ चहकता है यद-ए-बैज़ा सा यार के हाथ में क्या मोजज़ा-ए-मूसी है मरती उस गुल पे है बिकता है जो कौड़ी कौड़ी तुझ पे मरती नहीं बुलबुल भी कुछ उल्लू सी है ऐ सनम नाला ओ अफ़्ग़ाँ से मिरे शाम ओ सहर दिल के बुत-ख़ाने में अब नग़्मा-ए-नाक़ूसी है दश्त में चल कि हर इक ख़ार-ए-बयाबाँ को 'निसार' जूँ हिना कब से तमन्ना-ए-क़दम-बोसी है