वाजिबी बात कहीं ज़रा कहिए बरी लगती है सब को क्या कहिए मुझ को इक ये बड़ी सी हैरत है बुरे को किस तरह भला कहिए नेकी का फल बदी लगा होने इस ज़माने का क्या गिला कहिए चर्ख़-ए-ज़ालिम ने सब को डाला पीस इस को तहक़ीक़ आसिया कहिए और ही अहवाल देखता हूँ मैं किस के आगे ये माजरा कहिए जा-ब-जा छूटें झूट के शीशे ये भी यारों का इश्क़ला कहिए अम्मी कहते हैं हम तो हैं फ़ाज़िल बेवक़ूफ़ों का दर खुला कहिए अपनी करते हैं आप ही तारीफ़ उन के तईं को तो चूतिया कहिए बे-शुऊरी पे बस-कि हैं नाज़ाँ क्यूँ न अब उन को ना सज़ा कहिए शैख़-जी ने किया है आज ख़िज़ाब इस को बूढ़े का चोचला कहिए लोगों के फोड़ता फिरे शीशे मोहतसिब को तो मस्ख़रा कहिए पोच पादर हुआ बके है सुख़न नासेह को ख़्वाह-मख़ाह सड़ा कहिए अपना सर फोड़ता है आप रक़ीब शौक़ से इस को मुद-झड़ा कहिए मारे ख़ंदों के मर्द-ए-आदम को कोई पूछे नहीं है क्या कहिए दाढी मिला की गो कि है ख़ू-गीर पर महादेव की जटा कहिए जिन की हुर्मत पे कुछ नहीं है निगाह इन को पा-पोश का तला कहिए छुपते फिरते हैं वक़्त-ए-जंग-ओ-जदल बुज़दिला उन को बरमला कहिए ख़ुद-पसंदी में ग़र्क़ है आलम 'नयन' को किस को अब बुरा कहिए