मेरे तिरे मिलने का कुछ उस्लूब नहीं है जुज़ गिर्या कोई चारा-ए-मर्ग़ूब नहीं है रो रो के मैं कहता हूँ तू हँस हँस नहीं सुनता शोख़ी तिरी ऐ यार निपत ख़ूब नहीं है रोता रहा मैं हँसते ही दिल ले गया मेरा ये शोख़ निपत शोख़ है महजूब नहीं है दरबाँ मुझे क्यों दर से निकाले है शब-ओ-रोज़ जुज़ इस के कोई अपना तो मर्ग़ूब नहीं है याक़ूत-ओ-गुहर कूट के आपस में भरे हैं वल्लह कि तिरी चश्म पुर-आशोब नहीं है नासेह की सुने कौन हिकायात नसाएह मग़्ज़ इस का निपत ख़ुश्क है मर्तूब नहीं है सुनते थे कि बद-ख़ू है 'अली' वो बुत-ए-काफ़िर देखा तो कोई उस से ख़ुश-उस्लूब नहीं है