मिरे ‘अलावा ग़ैर का ख़याल कैसे आ गया तुम्हारे दिल के शीशे में ये बाल कैसे आ गया अभी तो लज़्ज़त-ए-ख़लिश से दिल मिरा भरा न था अभी से ज़ख़्म-ए-दिल में इंदिमाल कैसे आ गया अभी तो दिल के थामने को हाथ भी उठा नहीं अभी से धड़कनों में ए'तिदाल कैसे आ गया अभी तो ना-तमाम हैं फ़िराक़ की स’ऊबतें अभी से दिल को मुज़्दा-ए-विसाल कैसे आ गया अभी बिसात-ए-रक़्स-ओ-रंग बज़्म में बिछी ही थी रुख़-ए-तरब पे रंग-ए-सद-मलाल कैसे आ गया तुम्हें जो नाज़ था 'ज़की' बुलंदियों पे इस क़दर ये क्या हुआ ‘उरूज पर ज़वाल कैसे आ गया