संगीनी-ए-हालात से अब डरने लगा हूँ बे-बात सी हर बात से अब डरने लगा हूँ मुझ बंदा-ए-नाचीज़ पे इतना भी करम क्या हर दम की मुदारात से अब डरने लगा हूँ अनजाने में फिर ताज़ा कोई गुल न खिला दे बहके हुए जज़्बात से अब डरने लगा हूँ क्या जाने ये किस शक्ल में कब सामने आ जाएँ दुनिया की ‘इनायात से अब डरने लगा हूँ अल्लाह-रे ये कश्मकश-ए-ज़ीस्त का आलम ख़ुद अपने ख़यालात से अब डरने लगा हूँ ये इल्म की इफ़राती है या अक़्ल का फ़ुक़्दान बच्चों के सवालात से अब डरने लगा हूँ इस खेल में 'महफ़ूज़' ये आँखें न चली जाएँ मैं जल्वों की बहुतात से अब डरने लगा हूँ