मेरी बस्ती में जो सूरज कभी उतरा होता मैं बदन होता तिरा तो मिरा साया होता किस की बे-मेहर अदा से हमें शिकवा होता हम किसी के न हुए कौन हमारा होता जान पर खेल के मैं राह-ए-वफ़ा तय करता उस की जानिब से मगर कुछ तो इशारा होता दिल का एहसान है जो बुझ गया ख़ुद ही वर्ना जाने मैं किस को कहाँ ढूँडने निकला होता उस को पाने की तो हसरत है उसे पा कर भी किस को मा'लूम है दिल यूँ ही अकेला होता दूर से खींचता रहता है जो तस्वीर मिरी काश उस ने कभी नज़दीक से देखा होता सुन के यारों के अलम सोचता रहता हूँ कि मैं कैसे जीता जो तिरा प्यार भी झूटा होता मेरे ऐबों में है शामिल मिरी मजबूरी भी मैं भी इंसान न होता तो फ़रिश्ता होता तुम न आए कभी नज़दीक तो अच्छा ही क्या लोग नादाँ हैं यूँही शहर में चर्चा होता दुनिया-दारी में पड़े होते जो तुम भी 'अंजुम' दिल भी ख़ुश रहता सदा नाम भी ऊँचा होता