मेरी दास्तान-ए-ग़ज़ल ने अब मेरे ग़म सभी को बता दिए जो छुपा रही थी मैं अब तलक वही राज़-ए-दिल लो दिखा दिए भला घूमती मैं कहाँ कहाँ लिए ज़ख़्म-ए-दिल तेरे नाम के मेरे अश्क-ए-चश्म चराग़ ने तेरे सारे ख़त ही जला दिए है बहार गुम है फ़ज़ा भी चुप हैं चमन से दूर वो तितलियाँ कि तरक़्क़ियों ने दयार से वो हसीन गाँव मिटा दिए मैं तो बाँटती रही पोथियाँ जो लिखीं थीं तेरे विसाल में कि उदासियों के हिसाब में तू ने क्यों मकान जला दिए कई बार सोच के यूँ लगा मेरे हाथ में तेरा हाथ है जो हक़ीक़तों के दिए जले तो मोहब्बतों के बुझा दिए कहीं खो गई है जो साँस ही तो धड़क के दिल ये करे भी क्या किसी बे-वफ़ा की 'कशिश' के ग़म रह-ए-बा-वफ़ा पे भुला दिए